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1 - बाबूजी कहते थे...

बूँद से तू सागर हो जाएगा !
मन को मार, अमर हो जाएगा !

इच्छाएँ, सपने और मन,
अन्धी दौड़ ज़माने की !
जिस दिन हिम्मत आ जाए,
इन सब को ठुकराने की !
मील का तू पत्थर हो जाएगा ॥
मन को मार....................

धरती बिछा, आसमाँ ओढ़,
चख ले फ़ाकामस्ती को !
ख़ुद से बाहर निकल ज़रा,
मिटा दे अपनी हस्ती को !
ये जग तेरा घर हो जाएगा ॥
मन को मार.....................

परछाई के पीछे तू,
कितना, कब तक भागेगा ?
शाम हो चली जीवन की,
आखिर कब तू जागेगा ?
जब ये तन जर्जर हो जाएगा ?
मन को मार.....................

झूठी दुनियादारी है,
झूठे रिश्ते-नाते हैं !
तेरा-मेरा, सब दिल को,
बहलाने की बातें हैं !
सबका जोड़ 'सिफ़र' हो जाएगा ॥
मन को मार......................

***

2 - हम हैं फक्कड़ कबीरा के यार...

हम हैं फक्कड़, कबीरा के यार,
मगन मन मस्ती में ।
नहीं दुनिया की कुछ दरकार,
मगन मन मस्ती में ।

ना काहू से बैर है अपना,
ना काहू से प्रीत ।
डायन हार डरा ना पावे,
लुभा सके ना जीत ।
हो किनारा, या हो मझधार,
मगन मन मस्ती में ।
नहीं दुनिया की.....

आठ पहर महाठगिनी माया,
आकर चरण पखारे ।
मन बैरागी अपनी धुन में,
राम ही राम उचारे ।
लगे निर्जन सा बीच बजार,
मगन मन मस्ती में ।
नहीं दुनिया की....

***

3 - ख़ुद को खाली कर के आना...

अहंकार के उच्च शिखर से,
नीचे स्वयं उतर के आना ।
मुझ से मिलने का मन हो तो,
ख़ुद को खाली कर के आना ।

अभी तुम्हारे मन के भीतर,
भाव सिंधु में ज्वार उठा है ।
अभी तृप्ति है सिर्फ दिखावा,
तृष्णा का अंबार उठा है ।

सुनो ! जल्दबाजी मत करना,
थोड़ा और ठहर के आना ।
मुझसे मिलने का मन हो तो,
ख़ुद को खाली कर के आना ।

मैं जब से जन्मा तब से ही,
ढाई आखर बांच रहा हूं ।
किसी आदिवासी बच्चे सा,
धूल उड़ाते, नाच रहा हूं ।

तुम अपने सब ग्रंथ, पोथियां,
वहीं, ताक पर धर के आना ।
मुझ से मिलने का मन हो तो,
ख़ुद को खाली कर के आना ।

***

4 - राम सगा, सौतेली दुनिया...

जान गए हम, बूझ गए हम,
उलझी एक पहेली दुनिया ।
राम सगा, सौतेली दुनिया ।।

निस दिन देखे, और ललचावै,
लाख जतन करे, छूट न पावै ।
मन माखी, लिपटे मर जावै,
मीठी गुड की भेली दुनिया ।
राम सगा, सौतेली दुनिया ।।

कौन हैं अपने, कौन पराए,
सब नाते, स्वारथ के जाए ।
दुख में राम नाम काम आए,
सुख की सिर्फ सहेली दुनिया ।
राम सगा, सौतेली दुनिया ।।

पल दो पल का है ये मेला,
साथ न जाए कौड़ी - धेला ।
सोच तू इसके संग है खेला,
या तेरे संग खेली दुनिया ।
राम सगा, सौतेली दुनिया ।।

***

5 - मौत की उंगली पकड़कर चल रहा हूं...

पग धरे जिस दिन धरा की देहरी पर,
तब तनिक आभास ना था, मैं कहां हूं ।
किंतु अब विश्वास पक्का हो चला है,
मौत की उंगली पकड़कर चल रहा हूं ।
जिंदगी इक अनलिखी कविता सी लगती,
समझना तो दूर, पढ़ना भी कठिन है ।
अर्थ बतलाने की बातें, व्यर्थ हैं सब,
इसकी तो परिभाषा गढ़ना भी कठिन है ।
सोचता हूं तो ये लगता है की जैसे,
साथ सबके स्वयं को भी छल रहा हूं ।।

हां, ये पल ! जिनमें ये सांसें जागती हैं ।
लम्हा लम्हा ये सभी अब सो रहे हैं ।
किस विधि से हल निकालें इस गणित का,
सारे उत्तर, प्रश्नवाचक हो रहे हैं ।
चाह तो है लक्ष्य की, लेकिन करूं क्या,
रास्तों की ही नजर में खल रहा हूं ।।

***

6 - ख़ुद से मत हारना...

मेरा दावा है ये - जीत जायेगा तू,
ख़ुद से मत हारना ।
ख़ुद से मत हारना ।
सच तो ये है, कभी, देर होती नहीं ।
काम होंगे सभी, तयशुदा वक्त पर ।
सब्र से काम ले, रब का तू नाम ले,
ख़ुद ही आसान हो जायेगा हर सफर ।
पंख देगी हवा, तेरी रफ़्तार को,
ख़ुद फरिश्ते भी तरसेंगे दीदार को ।
मंज़िलें, रास्तों को, दिखाएगा तू,
ख़ुद से मत हारना ।
ख़ुद से मत हारना ।
तेरे जैसा यहां, और कोई नहीं ।
फिर किसी और से, होड़ किस बात की ?
जीत का अर्थ क्या है, समझ ले ज़रा,
ख़ुद समझ जाएगा, दौड़ किस बात की ?
अपने हर पल को, पहले से बेहतर बना ।
हो सके तो, हर इक दिल में तू घर बना ।
बनके सूरज, नई भोर लाएगा तू ।
ख़ुद से मत हारना ।
ख़ुद से मत हारना ।
***

7 - हम सब अपने अहंकार की पूजा करते हैं...

न साकार, न निराकार की पूजा करते हैं,
हम सब अपने अहंकार की पूजा करते हैं ।
निकल सकें हम ख़ुद से बाहर, 
इतना समय कहां !
पर पीड़ा को अपना समझें, 
ऐसे हृदय कहां ?
कहने को तो भीड़ बड़ी है,
पर सबको अपनी ही पड़ी है ।
देह भुलाकर, अलंकार की पूजा करते हैं ।
हम सब अपने.......

अलग - अलग है सबकी ढपली, 
अलग - अलग है राग ।
भाई - चारे के भूसे में,
सुलग रही है आग ।
लेना - देना क्या ईश्वर से !
सबका नाता आडंबर से ।
छद्म मुखौटे, इश्तहार की पूजा करते हैं ।
हम सब अपने.......

***

8 - मैं सनातन हूं...

मेरा ठोस रूप हिम-कण हैं,
मेरा तरल-रूप है पानी !
मेरा वाष्प-रूप बादल हैं,
शाश्वत है मेरी कहानी !
मैं सनातन हूं ।
मैं बीज हूं, मैं ही फल हूं,
मैं पर्ण, पुष्प, तरुवर हूं ।
सृष्टी ने जिसे नित गाया,
अनहद रूपी वह स्वर हूं ।
संघर्ष, विजय पथ मेरा,
अविरल है मेरी रवानी ।
हर जीत हुई नतमस्तक,
जब हार न मैंने मानी ।
मैं सनातन हूं ।
जिसे शस्त्र छेद न पाए,
जिसे अग्नि जला न पाए ।
जिसे वायु सुखा सके ना,
जिसे जल भी गला न पाए ।
अनुवाद पंच-तत्वों का,
भौतिक तन क्षुद्र निशानी ।
सौ में से घटें सौ फिर भी,
सौ बचें, बात यह जानी ।
मैं सनातन हूं ।
***

9 - उतने सफल कहाओगे तुम...

बीच सड़क डुगडुगी बजाओ
बंदर तभी नचा पाओगे ।
उतने सफल कहाओगे तुम,
जितना शोर मचा पाओगे ।

जिसे बोलना आता उसके
गधे यहां पर बिक जाते हैं ।
जो चुप रहता उसके घोड़े, 
नहीं उम्र भर बिक पाते हैं ।

लिखकर रख लो, बेशर्मी से
जितनी शर्म पचा पाओगे ।
उतने सफल कहाओगे तुम,
जितना शोर मचा पाओगे ।

जो भारी थे, गए गर्त में,
हल्के, ऊपर उछल गए हैं ।
यहां सफलता के पैमाने,
पूर्ण रूप से बदल गए हैं ।

जहां केंचुए पूज्य, वहां पर
कब तक रीढ़ बचा पाओगे !
उतने सफल कहाओगे तुम,
जितना शोर मचा पाओगे ।

***

10 - रचे स्वर्ग सन्यासी...

कैसी भीड़ ? बियाबां कैसा ?
कैसे लख चौरासी ?
जहां बैठे तहां धूनी रमाए,
रचे स्वर्ग सन्यासी ।।

बीच शहर में अनहद बाजे,
छोर मिले जब अपना ।
नयन मूंदकर जागे, देखे
खुले नयन से सपना ।

जिस दिन से मन हुआ कबीरा,
क्या मगहर, क्या कासी ?
जहां बैठे तहां धूनी रमाए,
रचे स्वर्ग सन्यासी ।।

***

11 - सिरफिरा हूं...

सिरफिरा हूं, बूंद में सागर डुबोने चल पड़ा हूं ।

आज संबंधों की उर्वर भूमि ऊसर हो चुकी है ।
मानवी संवेदनाएं, धूल धूसर हो चुकी हैं ।
फिर भी कल्पित मृगतृषा की, बांधकर आंखों पे पट्टी,
पत्थरों पर, भावना के बीज बोने चल पड़ा हूं ।

भावनाएं शब्द बनकर, गीत में जो ढल रही हैं,
ये कलम की सिसकियां हैं, कागजों को छल रही हैं ।
अर्थ पंगु हो चुके हैं, जानता हूं, किंतु फिर भी,
टूटते धागे में कुछ मोती पिरोने चल पड़ा हूं ।

ऐसा लगता है सरासर झूठ हैं अनुबंध सारे ।
सांसें हैं बहती नदी सी, और हम सूखे किनारे ।
स्मृति की ओस भीगी पंखुड़ी ताजा रहे बस,
इसलिए फिर नयन कोरों को भिगोने चल पड़ा हूं ।

कल मिला था एक झरना, झूमता, ख़ुद को लुटाता,
कह रहा था, नीर धर लेता, तो क्या झरना कहाता ?
मैं मेरे भीतर रहा जब तक, स्वयं से मिल न पाया,
ख़ुद को पाने के लिए ही, ख़ुद को खोने चल पड़ा हूं ।

***

12 - बेटे, दुख अपनाना सीखो...

बेटे, दुख अपनाना सीखो ।।
खुशियां पल भर को आती हैं,
आते ही गुम हो जाती हैं ।
दुख जीवन भर का साथी है,
दुख को मित्र बनाना सीखो ।
बेटे, दुख अपनाना सीखो ।।

दुख अक्सर निकला करता है,
आंसू बन भीगी आंखों से,
पंछी के टूटे पाँखों से,
बिरहन की उठती बाहों से,
और मन की ठंडी आहों से,
तन्हाई में पुरवाई से,
मातम करती शहनाई से,
मन की अगणित पीड़ाओं से,
वृद्ध उम्र की रेखाओं से,
बीते क्षण, दिन और सालों से,
सन की तरह श्वेत बालों से,
छालों भरे, थके पांवों से,
ग़ज़लों, गीतों, कविताओं से,
दुख अक्सर निकला करता है ।

दुख अतीत की एक धरोहर,
दुख को व्यर्थ गंवाना न तुम ।
छालों को रखना सहेजकर,
आंसू भी टपकाना न तुम ।
तुम ही दुखी नहीं हो जग में,
दुखद घड़ी, सब पर आई है ।
राम रहे वन में, महाराणा ने
तृण की रोटी खाई है ।
दुख सहन का मज़ा निराला,
दुख संग साथ निभाना सीखो ।
बेटे, दुख अपनाना सीखो ।।

आखिर दुख का मतलब क्या है ?
भरी दोपहर, तपन में श्रम
करते नन्हे हाथों से पूछो ।
लावारिस, बेनाम, सिसकते
झुके हुए माथों से पूछो ।
हैं अटूट, सहकर जो विपदा,
सब्र के उन बांधों से पूछो ।
युवा पुत्र की अर्थी उठाई,
उन बूढ़े कांधों से पूछो ।
जिसके लिए सिंदूर धूल है,
जाकर उस विधवा से पूछो ।
मृत्यु शैय्या पर, अपने लाल की,
बाट जोहती मां से पूछो ।
आखिर दुख का मतलब क्या है ?
यह आवश्यक नहीं, कि दुख
सहने वाला हरदम रोता है ।
दुख उसको ही मिलता जिसमे,
सहने का साहस होता है ।
सूली पर चढ़कर भी ईसा के
चेहरे पर शांति बसी थी ।
भगतसिंह, अशफ़ाक को फांसी
हुई मगर, अधरों पे हंसी थी ।
दुख वीरों का आभूषण है,
कायर क्या दुख को जानेगा ?
जिसने दुख की शक्ल न देखी,
वह क्या दुख को पहचानेगा ?
दुख में भी आनंद छिपा है,
दुख को गले लगाना सीखो ।
बेटे, दुख अपनाना सीखो ।
***

13 - वो साथ चलें...

जो लड़ पाएं गद्दारों से, वो साथ चलें,
जो खेल सकें हथियारों से, वो साथ चलें ।
है कलियों की चाहत जिनको, वो ना आएं,
जो शूल चुनें गुलजारों से, वो साथ चलें ।

है राह मेरी दुश्वार बड़ी, तुम क्या जानो !
है कदम कदम पर मौत खड़ी, तुम क्या जानो !
मेरे मुस्काने से भ्रम में मत पड़ जाना,
कब लग जाए अश्कों की झड़ी, तुम क्या जानो !
है चाह जिन्हें शीतलता की, आराम करें,
जो गुज़र सकें अंगारों से, वो साथ चलें ।।

हम हैं यथार्थ के ठोस धरातल के वासी,
हम सपनों का संसार नहीं देखा करते ।
हम सात समंदर पार नज़र रखने वाले,
ये छोटे - मोटे ज्वार, नहीं देखा करते ।
है जिसे जरूरत कश्ती की, तट पर ठहरे,
जो टकराएं मझधारों से, वो साथ चलें ।।

जो हार चुके हैं जीवन से, वो कायर हैं,
तुम लड़ पाओ कठिनाई से, तो बात बने ।
संघर्ष प्रमाणित करता है कि जीवित हो,
जो उदासीन हो, उस जीवन के क्या माने ?
है इंतजार जिनको भी सुबह का, रुके रहें,
जो जूझ सकें अंधियारों से, वो साथ चलें ।।

दुनिया है, दुनिया के भी दो पहलू हैं,
दुनियावाले फिर कैसे अपवाद रहें ?
मौत भली होती है इज्जत की लेकिन,
जिल्लत के जीवन से, इतना याद रहे ।
है जिन्हें प्रेयसी की चिंता, वे ऐश करें,
जो ब्याह करें तलवारों से, वो साथ चलें ।।
***

14 - सांचा तेरा एक नाम...

झूठी ये माया, झूठी ये काया, झूठी ये दुनिया तमाम ।
सांचा तेरा एक नाम... ओ मेरे राम ।।

ओ मूढ़ पापी, माटी के पुतले, तू है अभागा ।
माया के मद में डूबा रहा, उम्र भर तू ना जागा ।
दिन रात माला फेरी मगर, निज मन को न धोया,
स्वारथ में पड़ कर, पा ना सका कुछ, जीवन भी खोया ।
रिश्ते भी झूठे, नाते भी झूठे, संबंध झूठे तमाम ।
सांचा तेरा एक नाम... ओ मेरे राम ।।

धरती को बांटा,अंबर को बांटा, सागर को बांटा ।
इंसां को बांटा, बांटा वतन को, और घर को बांटा ।
रोते हुए के आंसू न पोंछे, पत्थर को पूजा,
इंसान होकर ईश्वर को बांटा, ये मेरा, ये दूजा ।
राजे भी झूठे, झूठे सिंहासन, मालिक है वो, सब गुलाम ।
सांचा तेरा एक नाम... ओ मेरे राम ।।

नश्वर है काया, नश्वर जगत है, सब हैं विनाशी ।
है सब जगह वो, फिर कैसा काबा, फिर कैसी काशी ?
जिस पल जहां सिर झुक जाए समझो, सजदा हुआ है,
सांसें हृदय में उतरे तो समझो, उसने छुआ है ।
मंदिर भी झूठे, मस्जिद भी झूठी, झूठे ये तीरथ ये धाम ।
सांचा तेरा एक नाम... ओ मेरे राम ।।

***

15 - मेरा दुख कम हो जाता है...

अविरल अश्रु बहाती आंखों के संग मिलकर रो लेने से,
मैने यह महसूस किया है, मेरा दुख कम हो जाता है ।

जब भी पुष्प खिला कोई तो, कांटों ने षड्यंत्र रचाया,
पंखुड़ियों का विच्छेदन कर, खुश होकर त्यौहार मनाया ।
लहूलुहान वह फूल अभागा, सिसक रहा था दूर अकेला,
पूछ रहा था कांटों से, मेरी बरबादी से क्या पाया ।

किसी निर्दोष पुष्प की रक्षा करते, कांटा चुभ जाने से,
मैने यह महसूस किया है, मेरा दुख कम हो जाता है ।

मत पूछो मंज़िल की दूरी, साहस है तो बढ़ना सीखो,
लक्ष्य प्राप्ति निश्चित है इक दिन, हर मुश्किल से लड़ना सीखो ।
दृढ़ निश्चय की तुलना में तो, हिमगिरि भी बौना लगता है,
अनुगमन पुनरावृत्ति से अच्छा, नव पथ गढ़ना सीखो ।

पथरीले पथ पर छलनी पांव के संग चलते जाने से,
मैने यह महसूस किया है, मेरा दुख कम हो जाता है ।

***

16 - मेरा वो गांव लौटा दो...

जो पगडंडी पे चलते थे, मेरे वो पांव लौटा दो,
तुम्हारा शहर तुम रख लो, मेरा वो गांव लौटा दो ।

मेरा वो गांव जिसके गर्भ में नित प्यार पलता है,
उछलते कूदते पंछी के संग सूरज निकलता है ।

जहां पर एक ही मिट्टी है सारे गांव की माता,
जहां पर एक ही नाता है, भाईचारे का नाता ।

जहां ना धर्म जाति का, कोई भी भेद बसता है,
फकत इंसान रहते हैं, जहां पर प्रेम हंसता है ।

जहां सब लोग पीते हैं, पुराने कुंए का पानी,
जहां पर एक ही बूढ़ी है सारे गांव की नानी ।

जहां रातों के अंधियारे को चंदा रोक लेता है,
जहां पर जेठ की गर्मी को बरगद सोख लेता है ।
जहां गाता है कोई माहिया, खेतों की मेड़ों पर,
जहां पर कूकती है कोकिला, अंबुवा के पेड़ों पर ।

जहां सूरज की लाली सुबह गीता गुनगुनाती है,
जहां बाद ए सबा कुरआन की आयत सुनाती है ।

जहां हर साल चंदन ईद की खुशियां मनाता है,
जहां बचपन से गंगा से ज़फ़र राखी बंधाता है ।

जहां चरवाहे की बंसी, किशन सी तान देती है,
जहां ग्रामीण बालाओं में, राधा सांस लेती है ।

जहां मिट्टी में भक्ति भाव की खुशबू समाती है,
नमाज़ी की तरह सजदे में फसलें सिर झुकाती हैं ।

मेरे उस गांव ने गैरों को चाहा, अपनों से बढ़ के,
यहां अपनों के लोहू से लथपथ हैं सभी सड़कें ।

तुम्हीं को हो मुबारक ये घने कंक्रीट के जंगल,
मुझे तो बूढ़े पीपल की वो ठंडी छांव लौटा दो ।

तुम्हारा शहर तुम रख लो, मेरा वो गांव लौटा दो ।

मैं जब भी गांव जाता हूं, लिपट जाती है तब मुझसे,
बड़े ही अपनेपन से गलियों की वह धूल और मिट्टी ।

कि जैसे मां कोई बाहों में भर कर लाल को चूमे,
निहारे देर तक, बालों में अपनी उंगलियां फेरे ।

नयन में बांध लेकर आंसुओं का कांपते लब से,
ज्यों भर्राए गले से पूछे, बेटा कैसा है रे तू ?

मैं अपने आंसुओं को बहने से न रोक पाता हूं,
थके पंथी की तरह बस वहीं पर बैठ जाता हूं ।

सुनाई पड़ता चिर परिचित पपीहे का वही गाना,
ओ साथी, छोड़कर हमको, कहीं तुम फिर न खो जाना ।

अचानक झूमते बच्चों की टोली घेर लेती है,
हे चाचा आए, चाचा आए, चाचा आए कहती है ।

उन्हीं में से कोई नन्हा, मुझे झकझोर देता है,
मेरी उंगली पकड़कर मुझसे बरबस पूछ लेता है ।

"छमज आती है ना तुमको, हमाली तोतली भाछा ?
हमें तुम छोल के, फिल तो नई जाओगे न चाचा ?"

"अगल जाओगे तुम तो देखना हम लूथ जायेंगे,
खिलौने दोगे हमको फिल भी हम ना मुछकुलाएंगे ।"

ये उसकी तोतली बोली, कलेजा चीर जाती है,
मेरी आंखों में उस परदेस की तस्वीर आती है ।

जहां मैं खोजता फिरता था, हर आराम जीवन का,
मगर था ख़ाली ख़ाली सा, कोई कोना मेरे मन का ।

कहां ये गांव जो अपनों के दुख में रोज़ जलता है,
कहां परदेस वो जिसमें, मशीनी राज चलता है ।

रखे बुनियाद युद्धों की, बढ़ावा दे जो शस्त्रों को,
यही वो शस्त्र हैं, पल भर में जो लीलें सहस्त्रों को ।

हां माना चांद पर तुम जा चुके, कोरी बुलंदी है,
तरक्की जिसको तुम कहते हो वो एक दौड़ अंधी है ।

यही विज्ञान है तो सच कहो, अज्ञान फिर क्या है ?
यही इंसान है तो सच कहो, शैतान फिर क्या है ?

मुझे मतलब नहीं तुम बम बनाओ, सब जला डालो,
ज़रा से स्वार्थ में पड़कर ज़माने को मिटा डालो ।

जहां तक नापनी है नाप लो अंबर की तुम दूरी,
मगर ये जान लो तृष्णा कभी होती नहीं पूरी ।

मुझे परवाह नहीं सागर का सीना चीर डालो तुम,
मेरे बचपन की, कागज़ की वो छोटी नाव लौटा दो ।

तुम्हारा शहर तुम रख लो, मेरा वो गांव लौटा दो ।

***

17 - चलो, मृत्यु को गले लगाएं...

चलो, मृत्यु को गले लगाएं ।
इस जग को तो देख चुके, अब
खोज खबर उस जग की लाएं ।
चलो मृत्यु को गले लगाएं ।।

चंद शब्द मैं, चंद शब्द तुम,
मिल बैठे तो छंद हो गया ।
साथ जरा सा और बढ़ा तो,
जीवन का अनुबंध हो गया ।
नदी नाव संयोग है जीवन,
परम सत्य को क्यों झुठलाएं ?
चलो मृत्यु को गले लगाएं ।।

क्यों सोएं सपनों में बेसुध,
क्यों दुनिया से यारी कर लें ?
न जाने कब आए बुलावा,
पूरी हर तैयारी कर लें ।
दुनिया पथ है, लक्ष्य नहीं है,
याद रखें, सबको समझाएं ।
चलो मृत्यु को गले लगाएं ।।

किंतु रुको, मृत्यु को समझो,
जहां चले यूं बिना विचारे ?
देह त्यागना मृत्यु नहीं है,
अंतर्मन का दीपक बारें ।
मन की चंचलता को मारें,
सुख दुख सदा सहज अपनाएं ।
चलो मृत्यु को गले लगाएं ।।

***

18 - गुनगुना ऐ मन मेरे...

गुनगुना, ऐ मन मेरे, कुछ गुनगुना ।।
तू अकेला ही सही तो क्या हुआ ?

आ ज़रा कुछ दूर संग चल तो सही,
इस बहाने चार पल कट जायेंगे ।
ये भी क्या कम है जो दुख छाए अभी,
चार पल को ही सही, छंट जाएंगे ।
दर्द ने लब सिल दिए तो ग़म न कर,
कंठ में ही चल नए कुछ स्वर बना ।।
गुनगुना, ऐ मन मेरे, कुछ गुनगुना ।।

देख सबको गौर से, फिर ये बता,
कैसे जीते, मान जाते हार अगर ?
बोझ बिन, हैं बोझ कांधे याद रख,
चल नई कुछ हौसले की बात कर ।
बात, जिसमें जिंदगी के गीत हों,
कुछ मेरी सुन और कुछ अपनी सुना ।।
गुनगुना, ऐ मन मेरे, कुछ गुनगुना ।।

चल चुनें तिनके, बनाएं घोंसला,
चल उगाएं आस्था के पर नए ।
आस के आकाश में उड़ जाएं फिर,
नैन में पाले हुए, मंज़र नए ।
चल क्षितिज से मिल के आएं, दो घड़ी,
बैठने से कम न होगी वेदना ।।
गुनगुना, ऐ मन मेरे, कुछ गुनगुना ।।

***

19 - सबको मरघट में जाना है...

जीवन इक रैन बसेरा है,
दो पल के लिए ठिकाना है ।
ज़्यादा ऊंचे घर मत बांधो,
सबको मरघट में जाना है ।।

ये घोड़ा गाड़ी धन दौलत,
सब ठाठ पड़े रह जाएंगे ।
तन अग्नियान में चल देगा,
सब मूक खड़े रह जाएंगे ।
काया के झीने कपड़े में,
सांसों का ताना बाना है ।।

बंधु-भ्राता और सखा सभी,
भौंचक्क ठगे रह जाएंगे ।
सूनी सूनी दीवारों पर,
बस, चित्र लगे रह जाएंगे ।
अंधियारी कब्र के बिस्तर में,
माटी ही ओढ़, बिछाना है ।।

***

20 - तोते, रटते रह जाते हैं...

श्लोकों की हर स्वर गंगा के,
सब अर्थ, व्यर्थ बह जाते हैं ।
बस लाते नहीं आचरण में,
तोते रटते रह जाते हैं ।।

अध्याय याद करने भर से ही,
ज्ञान नहीं मिल पाएगा ।
दो चार पाठ पढ़ लेने से,
भगवान नहीं मिल पाएगा ।
पोथी पढ़ते पढ़ते जीवन के,
दिन घटते रहा जाते हैं ।।

माथे पर तिलक लगाने से,
क्या सचमुच ज्ञानी हो बैठे ?
ये नश्वर माटी के पुतले,
कितने अभिमानी हो बैठे !
काया की इमारत के खंडहर,
पल पल मिटते रह जाते हैं ।।

शब्दों को याद किया लेकिन,
अर्थों को भूल गए तोते ।
दुनिया को पाठ पढ़ाते, निज
कर्मों को भूल गए तोते ।
धर्मी बनते हैं और धर्मों में,
ही बंटते रह जाते हैं ।।

***

21 - आशाओं का अंत नहीं है...

मानव मन गहरा सागर है,
या कोई पगला निर्झर है !
या मदमस्त भोर का पंछी,
प्रतिपल उड़ने को तत्पर है ।

मन के भ्रमित सूक्ष्म उद्गम से,
तृष्णाओं की धार बही है ।
कण कण, जन जीवन है नश्वर,
आशाओं का अंत नहीं है ।।

आशा में ही छिपी निराशा,
आस, निराशा का उद्गम है ।
फिर भी अति आवश्यक है यह,
इस पर ही दुनिया कायम है ।

अगर हृदय में आस न हो तो,
मन इक जंग लगा पुर्ज़ा है ।
आस में कल का सार छिपा है,
यही तो जीवन की ऊर्जा है ।

समय मिले तो चिंतन करना,
हंसी हंसी में बात कही है ।
कण कण जन जीवन है नश्वर,
आशाओं का अंत नहीं है ।।

***

22 - कपड़े क्यों रंगाया...

मन भक्ति में नाहीं रंगाया रे,
कपड़े क्यों रंगाया, बावरे...
मन ईश्वर में नहीं लगाया रे,
चंदन क्यों लगाया, बावरे...

त्यागी बनकर, वन वन भटका,
रिश्ते नातों में मन अटका ।
मन से गई न माया रे,
कपड़े क्यों रंगाया, बावरे...

क्रोध न छोड़े, मोह न छोड़े,
रामनाम की चादर ओढ़े ।
खुद को ही भरमाया रे,
कपड़े क्यों रंगाया, बावरे...

कण कण में है वो अविनाशी,
मन के भीतर काबा - काशी ।
जिन खोजा, तिन पाया रे,
कपड़े क्यों रंगाया, बावरे...

***

23 - भये हम परदेसी...

हमसे छूटा पिया का देस, भये हम परदेसी ।
प्रेम दिवानी, मैं का जानूं, ज्ञान भरे उपदेस ?
भये हम परदेसी ।।

ब्याह कियो, नैहर मा छोड्यो, भूल गयो तुम गौना ।
सांस के तीर हृदय को भेदे, काटे नर्म बिछौना ।
बिरहन को जग दुल्हन बोले, मन पर लागे ठेस ।
भये हम परदेसी ।।

निस दिन नैना राह तके है, बैरन हो गई निंदिया ।
मैं युग युग की प्यास अधूरी, तुम स्वाति की बुंदिया ।
पागल चित चातक नहीं जाने, का जप तप, का भेस ?
भये हम परदेसी ।।

मैं नश्वर माटी की गुड़िया, तुम घट घट के वासी ।
यह दूरी है, या कि निकटता, जल बिच मीन पियासी !
तुम मालक, पालक, तुम दाता, हम दर के दरवेस ।
भये हम परदेसी ।।

***

24 - ऐ दिल, ऐ यार मेरे...

ऐ दिल ! ऐ यार मेरे, मायूस ना हो ।
होना है जो, वो ही होगा, तुम कुछ भी चाहो ।।

इंसां के बस में कहां है, किस्मत का लेखा ?
उम्मीद सबको है लेकिन, कल किसने देखा ?
माना तू है आज तन्हा, कल जाने क्या हो !
कदमों में दुनिया हो, बाहों में ये आसमां हो ।।

ये सच है जो तूने सोचा, वो हो ना पाया ।
लेकिन बता क्या सभी ने, सब कुछ है पाया ?
चल छोड़ जाने दे पगले, ग़मगीन न हो ।
है कौन ऐसा कि जिसको, ग़म ना मिला हो ।।

बदलेंगी करवट ये रातें, तुम देख लेना ।
उम्मीद को अपने दिल से, मिटने न देना ।
रौशन नहीं होंगी रातें, ना दिल को जलाओ ।
आंसू हैं अनमोल इनको, यूं ना गंवाओ ।।

***

25 - चल रे मन बंजारे...

चल रे मन बंजारे... चल रे मन बंजारे..
दूर क्षितिज के पार से तेरी मंज़िल तुझे पुकारे ।
चल रे मन बंजारे ।।

हर चौखट उसका ही घर है,
सामने हो जो, सो बेहतर है ।
वो मंदिर मस्जिद हो चाहे, गिरजे या गुरुद्वारे ।
चल रे मन बंजारे ।।

गाता चल मुस्काता चल तू,
हर दिल को महकाता चल तू ।
खुशबू को कब रोक सकेंगे, सरहद के बंटवारे ?
चल रे मन बंजारे ।।

भीगी आंखों से मिलना है,
सूखे होठों पर खिलना है ।
बूढ़े जर्जर हाथों की अब लाठी है बनना रे ।
चल रे मन बंजारे ।।

***

26 - तुमको मुबारक हो...

तुमको मुबारक हो ये तुम्हारे, चेहरे पर चिपकाई खुशियां ।
मुझको तो मेरी आंखों का, बिन बरसा बादल प्यारा है ।।

भीख मांगकर इन होठों पर, क्या झूठी मुस्कान सजाना ?
यूं खुद को ही धोखा देना, बोलो, क्या ये भूल नहीं है ?
गंगाजल की पावनता को, मैं क्या जानूं गंगा जाने,
पर मेरी आंखों के आंसू, ये कागज़ के फूल नहीं हैं ।

पानी क्या होता है पूछो, मरूथल की उस नागफणी से,
जिसको अपनी पीर के सागर का रेतीला जल प्यारा है ।।

सुबह को अलसाई किरणों का, अंगड़ाई लेकर मुस्काना,
ओस के छूते ही छुईमुई का, शर्माना अच्छा लगता है ।
शाम ढले कंकर की धुन पर, झील की खामोशी का गाना,
मुझको अक्सर लहरों के संग दोहराना अच्छा लगता है ।

झरनों ने जो बांध रखी है, दिल आया है उस पायल पर,
अल्हड़ सी इस पुरवाई का, ढलका सा आंचल प्यारा है ।।

बर्फीले संबंधों के इन, पीले पत्तों की क्या चिंता ?
यह एकाकी पेड़ अभी भी, ठूंठ सही, बेजान नहीं है ।
अब पूनम हो, चाहे अमावस, किरणों से क्या लेना देना ?
सूरज का दुनिया पर होगा, जुगनू पर एहसान नहीं है ।

विद्वानों के साये से भी दूर बहुत रहता है अक्सर,
माना दिल पागल है लेकिन, फिर भी ये पागल प्यारा है ।।

***

27 - जिंदगी जीने की जिद करती रही...

इक तरफ से हर घड़ी मरती रही,
जिंदगी जीने की ज़िद करती रही ।

पूर्णिमा को अब अमावस क्या कहें,
हम ही थे लाचार बेबस क्या कहें !
झील की लहरें थी, हम थे, चांद था,
जो हुआ, सो हो गया, बस क्या कहें !

अंजुली से चांदनी झरती रही,
जिंदगी जीने की ज़िद करती रही ।

यूं तो सब कुछ है मगर, क्या रह गया ?
कह गया, कुछ सह गया, कुछ बह गया ।
कौन, वो शेखर जो कुछ पागल सा था ?
खंडहर था, वो तो कब का ढह गया ।

हाथ भर नभ, पांव भर धरती रही,
जिंदगी जीने की ज़िद करती रही ।

***

28 - गीत मेरे लफ्जों के पंछी दीवाने...

गीत मेरे लफ्जों के पंछी दीवाने,
आ जाते हैं, तन्हाई से बतियाने ।

प्यासे अधरों पर दरिया से बहते हैं,
टूटे सपनों की शाखों पर रहते हैं ।
कांटों से ज़ख्मी फूलों के कानों में,
चुपके चुपके अपना दुखड़ा कहते हैं ।

बुलबुल की आहोें में लगते सुस्ताने,
गीत मेरे लफ्जों के पंछी दीवाने ।

इनका क्या आंसू पीना, ग़म खा लेना,
दिल बहलाने को थोड़ा सा गा लेना ।
तेरी यादों के अंबर से यारी है,
दुनिया के पिंजरे से इनको क्या लेना ?

ख़ामोशी में लिखें हवा पर अफसाने,
गीत मेरे लफ्जों के पंछी दीवाने ।

***

29 - अच्छे हैं मदहोशी के पल...

अच्छे हैं मदहोशी के पल,
होश जगाते, दोष दिखाते, ध्यान सजाते ।
अच्छे हैं मदहोशी के पल ।

अपने ही दर्पण से ख़ुद को,
जाने कितनी बार गुज़ारा ।
लेकिन आंख मिला ना पाए,
परछाई ने लाख पुकारा ।
कोई इजाज़त दे, ना दे, कहता जाऊंगा...

सच्चे हैं मदहोशी के पल,
धार बढ़ाते, साथ निभाते, पार लगाते ।
अच्छे हैं मदहोशी के पल ।

शंख, सीपियां, रेत घरौंदे,
रोज़ाना गुड़िया की शादी ।
चंद मांगने का साहस, और,
ज़िद करने की भी आज़ादी ।
कोई अन्यथा ले, ना ले, कहता जाऊंगा...

बच्चे हैं मदहोशी के पल,
धूल उड़ाते, धूम मचाते, झूम रिझाते ।
अच्छे हैं मदहोशी के पल ।

ये उसके अनुभव के पल, जो
शाश्वत भी, अनदेखा भी है ।
दुविधा में मन, उधर बुलावा,
इधर लक्ष्मण रेखा भी है ।
कोई ये समझे, ना समझे, कहता जाऊंगा...

कच्चे हैं मदहोशी के पल,
जाम उठाते, थाम न पाते, टूट बिलाते ।
अच्छे हैं मदहोशी के पल ।

***

30 - रात ढल रही है...

अंधियारे बिस्तर पर, आंख जल रही है,
रात ढल रही है ।

नाजायज़ सपनों का, गर्भपात करने को,
अनब्याही इच्छाएं, खिल रहीं बिखरने को,
प्रतिबंधित अभिव्यक्ति, कोख पल रही है ।
रात ढल रही है ।

भूख डांटकर कहती, जी रहे ग़नीमत है,
आज भी सुदामा की, झोंपड़ी यथावत है ।
मुट्ठी भर आस लिए, सांस चल रही है ।
रात ढल रही है ।

अंतहीन मरुथल के, नागफणी रिश्तों में,
आए थे एकमुश्त, बंट गए हैं किश्तों में ।
पलकों पर, अधरों की प्यास गल रही है ।
रात ढल रही है ।

पूरब में किरणों का, शोर सुन रहा हूं मैं,
पंछियों के कलरव में, भोर सुन रहा हूं मैं ।
अब हवा को पेड़ों की नींद खल रही है ।
रात ढल रही है ।

***

31 - जैसे तैसे दिन बुनता हूं...

जैसे - तैसे दिन बुनता हूं, रात उधड़ जाती है,
जितना पांव सिकोडूं, चादर छोटी पड़ जाती है ।

रोज़ हथेली के छाले कुछ और कड़े हो जाते,
रोज़ हृदय के घाव फूटकर, और बड़े हो जाते ।
सींचू ख़ून पसीना फिर भी, फसल उजड़ जाति है ।

व्यथा कथा के गीले आखर, कागज़ पर फैलाते,
छिनी धूप की बाट जोहते, खुद पर ही झल्लाते ।
दिनचर्या की थकी थकी सी, सांस उखड़ जाती है ।

बुझती आंखों में पथराए, स्वप्न लिये जाता हूं ।
लम्हों पर पैबंद लगाकर, उम्र सिये जाता हूं ।
उम्मीदों की लाश सुबह तक, और अकड़ जाती है ।

***

32 - बड़ा है आत्मबल...

यहीं पे है भला बुरा, यहीं पे छाँव-धूप है !
है जैसी अपनी सोच, वैसा जिन्दगी का रूप है ।
करें यकीन खुद पे जो वो होते हैं सफल !
बडा है आत्म-बल !
आत्म-बल ! आत्म-बल !!

स्वयं को साध - ना सके, तो "साधना" ही व्यर्थ है !
तू अंश है विराट का, सशक्त है ! समर्थ है !!
विवेक से तू काम ले !
स्वयम् का हाथ थाम ले !
तू चाह ले तो होंगी सारी मुश्किलें सरल !
बडा है आत्म-बल !
आत्म-बल ! आत्म-बल !!

स्वयं चुनाव कर, यहाँ सृजन भी है, विनाश भी !
असत्य भी है, सत्य भी, तिमिर भी है, प्रकाश भी !
तू चाहता है क्या बता ?
तू खुद ही है तेरा पता !
समय निकाल ! खुद को कभी ढूँढने निकल !
बडा है आत्म-बल !
आत्म-बल ! आत्म-बल !!

समय जिसे तराश दे वो जिन्दगी सँवर उठे,
चमक उठे ये मन, खुशी से आत्मा ये भर उठे !
अतीत के ये रास्ते,
भविष्य के हैं वास्ते,
इन्हीं के दम से आज है, इन्हीं के दम से कल !
बडा है आत्म-बल !
आत्म-बल ! आत्म-बल !!

***

33 - छोड़ सब तू, राह खुद अपनी बना...


छोड़ सब तू, राह ख़ुद अपनी बना ।

चाटकर तलुए किसी के,
हाथ जो आए ।
भूल जा, ऐसी तरक्की,
भाड़ में जाए ।
सब तेरे बस में यहीं है ।
तू किसी से कम नहीं है ।
पत्थरों के सामने मत गिड़गिड़ा ।।
छोड़ सब तू, राह ख़ुद अपनी बना ।

मांगना क्या रोशनी की
भीख सूरज से ?
ज़लज़ला आ जाएगा, तू
देख तो जल के ।
स्याह रातों के अंधेरे ।
ये पड़ेंगे पांव तेरे ।
बन के जुगनू रोशनी अपनी लुटा ।।
छोड़ सब तू राह ख़ुद अपनी बना ।

***

34 - मां भारती के लिए...

मखमली तृण की चादर चहुं ओर बिछी,
सिर पे घनेरे, हरे तरुओं की छाया है ।
खिली खिली कलियों की रंग बिरंगी छटा,
देखते ही इंद्र-धनुष शरमाया है ।
नभ पर अटखेली करते मेघों के शिशु,
सावन में वर्षा का मन हर्षाया है ।
मनुज की कौन कहे, देवों को भी हैरत है,
धरती पे स्वर्ग कहां से चला आया है ।

कहीं हिम आच्छादित पर्वतों की श्रृंखलाएं,
कहीं पे हरित, पल्लवित फुलवारी है ।
सरसों के खेत कहीं स्वर्ण की भांति सजे,
कहीं खुशबू से तर, केसर की क्यारी है ।
पंछियों का कलरव सांझ के सूरज तले,
झरनों के नीर की खनक मनोहारी है ।
बड़े ही नाज़ों से इसे पाला है वसुंधरा ने,
भारती तो धरती की बिटिया दुलारी है ।

***

35 - मनवा रे मनवा...

मनवा रे मनवा, किसकी तू जोहे बाट ?
काहे जागत नयन कपाट ?
मनवा रे मनवा, किसकी तू जोहे बाट ?

सांझ ढलत, छलकत, बिलखत नित,
प्रीत अगन सुलगाय ।
हरस कहां प्रिय, दरस, परस बिन,
तरस तरस मन जाय ।
काहे, होत अधीर उचाट ?
मनवा रे मनवा, किसकी तू जोहे बाट ?

स्वाति की बूंद, गगन घन तक तक,
चातक थक अकुलाए ।
बिरहन की अंखियन से सुमन बन,
मन की थकन झर जाए
लागे सेज चिता, घर घाट !
मनवा रे मनवा, किसकी तू जोहे बाट ?

***

36 - हम तो हैं सदियों से एक...

हम तो हैं सदियों से एक, हैं अखंड हम,
स्वप्न में भी सोचना न, हम बंट जाएंगे ।
मातृभूमि की सुरक्षा, लक्ष्य है हमारा एक,
बढ़े हैं जो कदम, ना पीछे हट पाएंगे ।
अभी तो कलम और हल है हाथों में पर,
वक्त आएगा तो सीमाओं पे डट जाएंगे ।
हमको बिखेरने के देखना न ख्वाब कभी,
सामने बढ़ेंगे जो वो हाथ कट जाएंगे ।

शांति और प्रेम को कायरता जो समझे तो,
चमन का हर फूल, शूल बन जाएगा ।
मानवता सर्वोपरि धर्म है हमारा अभी,
फिर प्राण लेना ही असूल बन जाएगा ।
सोते हुए शेरों को जो छेड़ोगे अगर तुम,
बाद में तुम्हारी बड़ी भूल बन जाएगा ।
टकराएगा हमारे दृढ़ निश्चय से तो,
पल भर में पहाड़, धूल बन जाएगा ।

रामजी के भक्तों सुनो, ए खुदा के बंदों सुनो,
वक्त की है मांग, देशभक्त बन जाइए ।
भेद भाव, छोटा बड़ा, ऊंच नीच का मिटाके,
स्वार्थ की सीमाओं से विरक्त बन जाइए ।
हिंदू - मुस्लिम बनकर न अशक्त बनो,
भारतीय बनके सशक्त बन जाइए ।
देश रूपी पौधा मुरझाने से बचना है तो,
सींचने को पानी नहीं, रक्त बन जाइए ।

***

37 - हे कवि ! बलिदान दो तुम...

हे कवि ! बलिदान दो तुम, तब कहीं उत्थान होगा ।
क्रांति की बातें बहुत की, अब प्रलय का गान होगा ।

कांपे नभ, डोले धरा, कुछ ऐसा तुम भूचाल कर दो,
दुश्मनों के खून से, ये सारी धरती लाल कर दो ।
हर तरफ हलचल मच, कुछ इस तरह हुंकार भर दो,
फिर फड़क उठें भुजाएं, जोश का संचार कर दो ।
मौत को आवाज दो, बांधो कफन अर्थी सजा दो,
तुम समर भूमि में जाकर, स्वयं रणभेरी बजा दो ।
दुश्मनी होती है कैसी, आज दुश्मन को दिखा दो,
आज हर ज़र्रे को स्वाभिमान की भाषा सिखा दो ।
याद रखो, शीश कट जाए, मगर झुकने न पाए,
सांस रुक जाए मगर ये कारवां रुकने न पाए ।

कसम खा लो दुश्मनों का हर नगर श्मशान होगा ।
हे कवि बलिदान दो तुम, तब कहीं उत्थान होगा ।

व्यर्थ ये कविताएं क्या, ये गीत, गज़लें, तर्क क्या है ?
तुम भी डींगें हांको तो, नेता में, तुम में फर्क क्या है ?
देना ही है कुछ तो सांसों को वतन के नाम कर दो,
करना ही है कुछ तो ख़ुद को देश पर कुर्बान कर दो ।
रक्त श्वेत और शीत है, अब बातों से क्रांति न होगी,
अंधे बहरों के नगर में, कलम से क्रांति न होगी ।
लपलपाती लाल लहू की लपट से ललकार निकले,
अब अगर निकले तो केवल म्यान से तलवार निकले ।
तुम हुए कुर्बां तो तुम पर देश को अभिमान होगा,
देश हित मरने से बढ़कर, क्या कोई सम्मान होगा !

हे कवि बलिदान दो तुम, तब कहीं उत्थान होगा ।
क्रांति की बातें बहुत की, अब प्रलय का गान होगा ।

***

38 - मैं पुजारी गीत का...


मैं पुजारी गीत का, गुणगान लेकर क्या करूं ?
मैं प्यासा हूं आशीष का, सम्मान लेकर क्या करूं ?

ऐसे अगणित लोग हैं, जो ख़ाक में ही खो गए,
व्यर्थ ही जीते रहे, फिर काल कवलित हो गए ।
हो दीर्घ पर निष्क्रीय हो, जीवन है वो किस काम का ?
कीड़े मकोड़ों की तरह, जीना है केवल नाम का ।
बोलो, तुम्हीं बोलो क्या उस जीवन का कोई अर्थ है ?
ना लोक हित, ना देश हित काम आ सका जो, व्यर्थ है ।
मिट जायेंगे परवाह नहीं, टकराएंगे तूफान से,
होते हैं छोटे तप सभी, निज देश हित बलिदान से ।

जाना है इनको एक दिन, तो प्राण लेकर क्या करूं ?
मैं प्यासा हूं आशीष का, सम्मान लेकर क्या करूं ?

निर्दोष मृत पुष्पों के शव, ये फूलमाला किसलिए ?
किसलिए सम्मान ये, श्रीफल दुशाला किसलिए ?
देना ही है तो दो मुझे विश्वास, कि कट जाओगे ।
रण बांकुरे बनकर समर में, सामने डट जाओगे ।
दोगे तिलक निज रक्त से, मां भारती के भाल को ।
तुम खड्ग बनकर काट दोगे, शत्रु की हर चाल को ।
हद हो चुकी है गर्त की, अब शीर्ष का उत्थान दो,
बिस्मिल, भगत, आजाद के सपनों का हिंदुस्तान दो ।

जब रो रही हर आंख तो, मुस्कान लेकर क्या करूं ?
मैं प्यासा हूं आशीष का, सम्मान लेकर क्या करूं ?

***

39 - फिर तुम्हें आना ही होगा...

देश भट्टी, लोग ईंधन, राजनीति है तवा ।
खादीधारी सेंकते हैं रोटियां अपनी सदा ।
रात दिन घोटाले करके काला पैसा पा रहे,
चील कौवे नोंचकर निज देश को ही खा रहे ।

राज गिद्धों का यहां पर, ख़ाक ये जनतंत्र है !
भूले आज़ादी के नारे, इनका बस एक मंत्र है ।
अब कहां का खून दो और अब कहां आज़ादी दूंगा ?
तुम मुझे सूटकेस दो और मैं तुम्हें समृद्धि दूंगा ।

भूल बैठे देश को, बस इनको घर से प्यार है ।
देश जाए भाड़ में, इनका सुखी परिवार है ।
चीज़ कुर्सी के सिवा कुछ दूसरी भाती नहीं ।
शहीदों की भूलकर भी, याद तक आती नहीं ।

मौत के फंदे को कैसे चूमा था खुदीराम ने !
छोटी सी थी उम्र पर, निर्भय था यम के सामने ।
खेलने खाने के दिन थे, फंसी पर झूला था वो ।
था दीवाना देश का, घर द्वार को भूला था वो ।

जाने कितने राजगुरु, सुखदेव, सावरकर गए ।
जाने कितने चंद्रशेखर और भगत हंसकर गए ।
कितने मंगल पांडे या अशफाक और बिस्मिल गए ।
जाने कितने ही उधमसिंह मौत से जा मिल गए ।

अब कहां रहते हैं वो, उनके ठिकाने हैं कहां ?
आज़ादी के वो दीवाने, कौन जाने हैं कहां !
संगीनों की नोंक से पूछो तो शायद कह भी दे,
जलियांवाले बाग से पूछो तो शायद कह भी दे ।

फांसी के फंदे को शायद कुछ पता मालूम हो,
ख़ून से भीगी थी जो मिट्टी, उसे भी पूछ लो ।
तोपों के मुंह पर ही शायद चीथड़ों के तार हो,
चमकती तलवारों पर शायद लहू की धार हो ।

उन शहीदों की हैं नस्लें भूख की मारी हुई ।
सैकड़ों सेनानियों की जिंदगी हारी हुई ।
काले पानी की सज़ाएं, पाशविक वो यातना,
फिर भी उन शेरों की नभ में गूंजती थी गर्जना ।

जिस्म नंगा, खाल उधड़ी, पीठ पर रक्तिम प्रलय,
देह पर कोड़ों के धारे, मुंह में भारत मां की जय ।
क्या किया सरकारों ने उनके भले के वास्ते ?
सबने अपनी कुर्सी देखी, अपने अपने रास्ते ।

ऊंची कुर्सी मिल गई तो ख़ुद पे इतराने लगे ।
कंगूरे दो कौड़ी के, बुनियाद बिसराने लगे ।
ओ शहीदों, क्यों हुए कुर्बान, क्या नादान थे ?
तुम भी तो आखिर किसी की आंखों के अरमान थे ।

अपनी माता के बुढ़ापे का सहारा थे तुम्हीं ।
डूबते परिवार की खातिर किनारा थे तुम्हीं ।
बहन की डोली के बदले कांधे पर बंदूक ली !
भावनाओं में बहे क्यों, क्यों भला ये भूल की ?

क्यों मुहब्बत की वतन से जान का सौदा किया ?
मौत से शादी रचा ली, पत्नी को विधवा किया !
क्यों मिट बेकार, क्यों न कारवां रुकने दिया ?
सिर कटा डाला, तिरंगा क्यों नहीं झुकने दिया ?

क्यों तुम्हारा ख़ून खौला, खाई थी कैसी कसम ?
मरते मरते भी लबों पर, क्यों था वंदे मातरम ?
अब, देख सकते हो, तो देखो अपने घर की स्थिति ।
स्वप्न क्या देखे थे तुमने, कैसी उनकी परिणति !

सुन सको, तो सुनो रखकर काबू में जज़्बात को,
पर गलत कहने से पहले, सोचना इस बात को ।
दो कमाते, एक बचाते, कुछ तो घर में डालते ?
कम से कम तुम अपना घर परिवार ढंग से पालते ।

देश को आज़ादी दिलवाकर भी तुमको क्या मिला ?
रुक नहीं पाया है अब तक दासता का सिलसिला ।
तुम हुए कुर्बान क्यों, हम सोचकर पछता रहे ।
सारी मेहनत तुमने की, और खीर कुत्ते खा रहे ।

दौलते आज़ादी को, चोरों के हाथों धर दिया ।
सोन चिड़िया को शिकारी के हवाले कर दिया ।
स्वाद अदरक का बताओ, बंदरों को क्या पता ?
आज़ादी का मोल क्या है, कायरों को क्या पता ।

मिट रही वीरों की नस्लें, हीरों की इस खान में ।
फिर तुम्हें आना ही होगा, अपने हिंदुस्तान में ।

***

40 - युद्ध और प्रेम...


शस्त्रों से जो हैं सुसज्जित, सभी कायर लोग हैं,
सिकंदर, नेपोलियन, हिटलर, सभी डरपोक हैं ।
इनको डर है नाम इनका मिट्टी में मिल जाए ना,
डरते हैं, साम्राज्य की गहरी जड़ें हिल जाएं ना ।

इसलिए सबको डराते, अपनी सेना भेजकर,
मानते खुद को सुरक्षित, सबको कंपित देखकर ।
चाहते हैं ये सभी, कि इनसे सब भयभीत हों,
हारती जाए ये दुनिया, इनकी हरदम जीत हो ।

किंतु क्या नफ़रत से कोई जीत पाया प्यार को ?
मुझ पे यदि विश्वास ना हो, पूछ लो तलवार को ।
आज़माना चाहो तो, बंदूक उठा कर देख लो,
तुम मिटा सकते हो कितनों को, मिटा कर देख लो ।

वीर की पहचान क्या है ? कौन है निर्भय कहो ?
साहसी है वो ही, जिसके हाथों में ना शस्त्र हो ।
देश हित में युद्ध करना, चाहे हो सकता सही,
किंतु यह भी सत्य है कि, विश्व हित में यह नहीं ।

घृणा की शुरुआत क्या है ? निहित स्वार्थों से लगाव,
युद्ध की उत्पत्ति क्या है ? प्रेम का मन में अभाव ।
मान लो, इक झोंपड़ी है तिमिर में डूबी हुई,
इसका मतलब ये हुआ, वहां रोशनी बिलकुल नहीं ।

है तिमिर की कल्पना यह, मनुज मन की विकृति,
तिमिर तो है ही नहीं, है - किरण की अनुपस्थिति ।
प्रेम का दीपक जलाओ मन की कुटिया में ज़रा,
पाओगे कि प्रेम, और बस प्रेम है जग में भरा ।

युद्ध तो है ही नहीं, यह भी है कल्पित आकृति,
युद्ध याने मनुज मन में, प्रेम की अनुपस्थिति ।
जिस तरह आंखों को खोले, कोई सो सकता नहीं,
वैसे ही जहां प्रेम हो, वहां युद्ध हो सकता नहीं ।

जो शुरू हो शस्त्र से, उस युद्ध का परिणाम क्या ?
पूज्य पावन पृथ्वी पर, परमाणु बम का काम क्या ?
मैं ज़रा पागल हूं यारों, जाने क्या क्या कह गया,
आप सोचो, सच कहा या भावना में बह गया ।

***

41 - अहा ! मृत्यु !!


अहा ! मृत्यु !! तुम कितनी प्यारी,
कितनी शांत सरल हो !
सच ! कितनी निर्वैर, निष्कपट,
निर्मल और निश्छल हो !

अनायास अतिथि बनकर तुम,
द्वार सभी के आती ।
अपनी उपस्थिति से, सोते
घर को पुन: जगाती ।
सोये जन क्षण भर को जगते,
और फिर से सो जाते ।
हो जाते निश्चिंत, दिवा -
स्वप्नों में फिर खो जाते ।

भूल ही जाते हैं सब कि,
इस जग में तुम्हीं अटल हो ।।

परिभाषित यहाँ सबने, अपने
ढंग से तुम्हे किया है ।
जिसका जैसा दृष्टिकोण था,
वैसा नाम दिया है ।
कोई तुम्हे निष्ठुर कहता है,
निर्मम कोई बताता ।
किंतु तुम्हारे अंतस्थल में,
कोई झाँक न पाता ।

क्रूर काल की छाँव नहीं,
तुम चँद्र सदृश उज्वल हो ।।

तुम अंतिम उत्सव जीवन का,
भोर हो नव-जीवन की ।
एक तुम्हीं जो सुध लेती हो,
जीर्ण-शीर्ण इस तन की ।
मोह-पाश में बंधे हुए जन,
निज अतीत में जीते ।
अंत समय में सब के ही घट,
रह जाते हैं रीते ।

ये जग बीता कल है, और
तुम आने वाला कल हो ।।

***

42 - मृत्यु कहते सब जिसे...


मृत्यु कहते सब जिसे, वह सिर्फ तन का त्याग है ।
वास्तविक मृत्यु नहीं है, उसका लघुतम भाग है ।
देह बस मरती है, जीता है अहं, जीता है मन ।
यह अहं और मन पुनः हैं प्राप्त करते पृथक तन ।
दोनों इक सिक्के के पहलू, वासना से हैं भरे ।
मृत्यु कब आसान है, है कौन जो सचमुच मरे ?

गर तुम्हें विश्वास ना हो, स्वयं करके देख लो ।
जैसे हो, वैसे रहोगे, खुद ही मर के देख लो ।
चौंकोगे पा कर, अरे, यह कैसा अद्भुत मेल है !
पाओगे कि आत्महत्या बच्चों का इक खेल है ।
देह ही छूटी है केवल, शेष जो था, है वही ।
देह का ही त्याग है यह, वास्तविक मृत्यु नहीं ।

लाश कहते हैं जिसे हम, देह वो निष्प्राण है ।
किंतु महामृत्यु का दूजा नाम ही निर्वाण है ।
जो महामृत्यु को पाते, लौटकर आते नहीं ।
सिंधु पाने वाले कुछ कतरों को ललचाते नहीं ।
क्या कभी सोचा है तुमने, देह क्यूं ये भार क्यूं ?
बात क्या आखिर है, सारे जीवन का आकार क्यूं ?

जब तलक मन में अहम है, तभी तक आकार है ।
जो अहं से मुक्त है, वह आकृति के पार है ।
वायु, जल, अग्नि, मृदा, आकाश का आकार क्या ?
पंचतत्वी देह के मन में अहं, तो सार क्या ?
अहंकारी ने सदा पाया नहीं, खोया ही है ।
जागरण तो नाम का है, आदमी सोया ही है ।

बढ़ता जायेगा अहं, तुम छोटे होते जाओगे ।
और इक दिन देखना, खुद ख़ाक में खो जाओगे ।
किंतु मन के अहं को तुम, जब कभी पिघलाओगे ।
दूसरे ही पल स्वयं में, एक वृद्धि पाओगे ।
इस कदर पिघलाओ कि परमात्मा से जुड़ सको ।
इस कदर पिघलाओ कि तुम भाप जैसे उड़ सको ।

भाप बनकर उड़ गए, तो सारा अंबर हो तुम्हीं ।
बूंद बन सिंधु में लौटे, सारा सागर हो तुम्हीं ।
वायु, जल, पृथ्वी तुम्हीं, तुम ही अगन, आकाश हो ।
पर जरूरी है तनिक ना, स्वयं का आभास हो ।
सोचते हो तुम कि "मैं" हूं, इसलिए "वो" है छिपा ।
और यही कारण है अब तक, वो नहीं तुमको दिखा ।

तुममें परमात्मा छिपा है, तुम स्वयं अवतार हो ।
उसको पाने की डगर में भी तुम्हीं दीवार हो ।
क्षुद्र सीमाओं को अपनी, लांघकर देखो ज़रा ।
तुममें भी ईश्वर छिपा है, जागकर देखो ज़रा ।
पूछते हो व्यर्थ बातें, उसको हम ढूंढें कहां ?
हर तरफ बिखरा है वो, तुम ढूंढते सारा जहां ।

ढूंढना उसको नहीं है, खुदको बस खोना ही है ।
और तुम खुद खो गए तो, वह प्रकट होना ही है ।
थोथे ज्ञानी, ग्रंथ लेकर, तर्क करते, और बवाल ।
चल रही है उल्टी शिक्षा, कर रहे उल्टे सवाल ।
पूछते हैं लोग, प्रभु को याद हम कैसे करें ?
पूछते हैं लोग, प्रभु का ध्यान हम कैसे धरें ?

जो भी उत्तर आएगा तो और उलझते जाओगे ।
प्रश्न ही उल्टे हैं, सीधा कैसे उत्तर पाओगे ?
प्रश्न होना चाहिए, दुनिया की याद आती है क्यूं ?
प्रश्न होना चाहिए, तृष्णा न बुझ पाती है क्यूं ?
मोह माया तज न पाए, चले उसको खोजने ।
आरती हाथों में लेकर, लगे घर की सोचने ।

मन को स्थिर कर न पाए, सब को धोखा दे रहे ।
ध्यान धंधे में लगा है, नाम उसका ले रहे ।
स्वार्थवश, संकट में केवल, नाम उसका टेरते ।
उम्र बीती, मन न बदला, रोज माला फेरते ।
बंध रहे हो दिन ब दिन, माया में, धन की डोर में ।
भूलना चाहते हो खुद को, घंटियों के शोर में ?

उठो, अपनी आंखें खोलो, देखो तो सृष्टि की ओर ।
कर रही स्वागत तुम्हारा, इक नई भीगी सी भोर ।
सुनो तो, पंछी भला आवाज़ किसको दे रहे ?
देखो तो, ये पेड़ पौधे नाम किसका ले रहे ?
क्या पवन यूं बे सबब ही बह रही है, बोलिए ?
नदी कल कल स्वर में यह क्या कह रही है, बोलिए ?

बादलों के छोटे छोटे बच्चे क्यूं इतरा रहे ?
पर्वतों की गोद में झरने भला क्या गा रहे ?
सोचो तो, ये महके महके फूल क्यूं मुस्का रहे ?
और ये भंवरे भला क्यूं, कलियों पे मंडरा रहे ?
किसके संग खेली है होली, तितलियों से पूछो तो ।
तड़पी क्यूं अंगड़ाई लेकर, बिजलियों से पूछो तो ।

क्यूं मलय से सरसराती शीत लहरें आ रही ?
क्यूं भला बारिश की बूंदें, छन छनन छन गा रही ?
किसकी भक्ति में है डूबा, हर अणु से पूछ लो ।
रंग ये किसने बिखेरे, इंद्रधनु से पूछ लो ।
क्यूं ये कोहरा छा रहा, पागल है किसके नेह में ?
आग ये किसने लगा दी, जंगलों की देह में ?

हम सभी ढोंगी, दिखावट का ये वंदन व्यर्थ है ।
भाव बिन, सब धूप बत्ती, दीप चंदन व्यर्थ है ।
चल रही पूजा सतत चहुं ओर, गहरे अर्थ हैं ।
देखकर महसूस करने में भी हम असमर्थ हैं ।
वृक्ष सारे, बेल की पत्ती से कुछ कम तो नहीं ?
खुशबू फूलों की, अगरबत्ती से कुछ कम तो नहीं ?

प्रसाद है ये प्रकृति का, झूमते फल देखिए ।
जल चढ़ाने आ रहे हैं, काले बादल देखिए ।
चमचमाती आरती अंबर की, चंदा का दिया ।
गड़गड़ा कर बादलों ने, नाद शंखों का किया ।
और मैं क्या क्या कहूं, तुम अब इन्हीं से पूछ लो ।
किसकी पूजा कर रहे ये सब, इन्हीं से पूछ लो ।

निश्चित ही उत्तर मिलेगा, पूछकर देखो तो तुम ।
सब तरफ वो ही दिखेगा, इक नज़र फेंको तो तुम ।
तुमको सृष्टि के हर इक कण में वो आएगा नज़र ।
देखते हो हर तरफ, फिर भी हो उससे बे खबर ।
अपने हाथों से ही मंदिर, मस्जिदें बनवा रहे ।
ढूंढते उसमें खुदा को खुद ही धोखा खा रहे ।

ईश मंदिर में नहीं है, होश में आओ ज़रा ।
प्रार्थना हो जाएगी, इक गीत तो गांव ज़रा ।
सारे कण कण पर लिखा, बस एक उसका नाम है ।
बस वही कान्हा है मीरा का, सिया का राम है ।
उसके, इस होने का तुमको भान जब हो जाएगा ।
कुछ नहीं कह पाओगे तुम, मन वहीं खो जाएगा ।

इस जुबां से उसका विश्लेषण नहीं कर पाओगे ।
दिल कहेगा कह दूं पर, वर्णन नहीं कर पाओगे ।
सोचो, संभव है कोई चम्मच से सागर नाप ले ?
सोचो, संभव है कोई मीटर से नभ को माप ले ?
सब सीमित है, वो अनंता, महिमा क्या गाओगे तुम ?
खोलोगे मुंह बोलने को, गूंगे हो जाओगे तुम ।

जब तलक तुम, तुम रहोगे, वह नज़र आता नहीं ।
उसमे जो खो जाए, वो खुद का पता, पाता नहीं ।
शांति का अनुभव करोगे, हृदय भर भर आएगा ।
नन्हा सा अमृत का झरना, मन में फिर बह जाएगा ।
यूं लगेगा, बज रहे चहुं ओर, स्वर संगीत के ।
कुछ न भाएगा सिवा फिर, उस पिया की प्रीत के ।

उस घड़ी हर ग्रंथ, हर शिक्षा, धरी रह जाएगी ।
सिर झुका रह जाएगा, आंखें भरी रह जाएगी ।

***

43 - इक मुखौटा तुम लगाते हो...

इक मुखौटा तुम लगाते हो
इक मुखौटा हम लगाते हैं
दो मुखौटे एक दूजे से,
राम जाने क्या छुपाते हैं ?

यूँ तो कहने के लिए हँसकर गले मिलते हैं हम !
दिल ही दिल में एक दूजे से मगर जलते हैं हम !
आँखों पर चश्में चढे,
हाथ दस्ताने में हैं !
चन्द बूंदें ज़िन्दगी,
टूटे पैमाने में हैं !

फिर भी कसमें खाते हैं लाखों,
अगले ही पल भूल जाते हैं !
दो मुखौटे एक दूजे से,
राम जाने क्या छुपाते हैं ?

***

44 - सांझ ढले ही ध्यान हमारा...

सांझ ढले ही, ध्यान हमारा,
हर आहट पर रहता है ।
रस्ते पर आंखें रहती हैं,
दिल चौखट पर रहता है ।

कोई बावरी बोले मुझको,
और कोई संतन बोले ।
दुनिया वाले पगलाए हैं,
बिरहन को जोगन बोले ।

मेरा साजन, यमुना तट के,
वंशीवट पे रहता है ।।

मत पूछो दिन कैसे बीता,
कैसे रात गुजारी थी ?
पलकों की पंखुड़ियों पर, वो
शबनम कितनी भारी थी !

कतरा कतरा दिल तकिए पर,
गम सिलवट पे रहता है ।

***

45 - मुस्कुराने को न बोलो...

मुस्कुराने को न बोलो, जान के लाले पड़े हैं ।

साथ लाईट कैमरों के,
आ गए हैं दुख जताने ।
बैठकर फुटपाथ पर, फिर
लग गए लोरी सुनाने ।
क्या बताएं सुनते सुनते कान में छाले पड़े हैं ।

सात दशकों से गरीबी,
को हटाने में लगे हैं ।
वो तो हट ना पाई, अब
फिर से पटाने में लगे हैं ।
खुद टमाटर हो गए, हम धूप से काले पड़े हैं ।

कसमसाती मुट्ठियां हैं,
किन्तु हैं जेबों के अंदर ।
हैं भिंचे जबड़े परन्तु,
क्षीण शक्ति का समंदर ।
कंठ में हैं शब्द सहमे, होंठ पर ताले पड़े हैं ।

भीड़ बोलो, भेड़ कह लो,
दोनों हैं पर्यायवाची ।
चल पड़े, हांका जिधर को,
कब स्वयं की चाह बांची !
हर गड़रिए को पता है, सोच पर जाले पड़े हैं ।

***

46 - ख़ुद से बातें कर लेता हूं...

मध्यरात्रि का गहन अंधेरा,
दूर कहीं अनजान सवेरा ।
सहमी, ठिठकी खामोशी को,
निज अंतस में भर लेता हूं ।
ख़ुद से बातें कर लेता हूं ।

सकल विश्व सोता रहता है,
अंतर्मन रोता रहता है ।
अश्रुधार के भंवर ज्वार में,
स्वयं डूबकर तर लेता हूं ।
ख़ुद से बातें कर लेता हूं ।

अंधियारे में आंख गड़ाए,
पूरब से इक आस लगाए ।
गिरते पड़ते, उठते चलते,
सारी राह गुज़र लेता हूं ।
ख़ुद से बातें कर लेता हूं ।

क्यों चाहूं विश्राम के दो क्षण ?
नहीं हुआ है अभी पूर्ण रण ।
जिसे चाह है घर की, घर ले,
मैं तो सदा डगर लेता हूं ।
ख़ुद से बातें कर लेता हूं ।

नव स्वप्नों के बीज बिखेरूं,
काल भाल पर स्वप्न उकेरूं ।
सारी चिंता छोड़ छाड़ कर,
वर्तमान को धर लेता हूं ।
ख़ुद से बातें कर लेता हूं ।

***

47 - तुम मुझको विस्मृत कर देना...

स्मृति वेदना की जननी,
स्मृति विगत का दर्पण है ।
स्मृति कभी है कंटक वन,
तो कभी महकता उपवन है ।
इसलिए प्रार्थना करता हूं,
यादों की गठरी धर देना ।
तुम मुझको विस्मृत कर देना ।।

अंतस के आकुल स्वर पंछी,
चिर मौन को गुंजन दे देंगे ।
वे शब्द रूप में ढलने पर,
अर्थों को जीवन दे देंगे ।
इसलिए प्रार्थना करता हूं,
मत भावों को अक्षर देना ।
तुम मुझको विस्मृत कर देना ।।

जीवन है केवल वर्तमान,
बीते से मत बंध जाना तुम ।
भावी है केवल मृगतृष्णा,
उसमें पड़, मत भरमाना तुम ।
जी भर के जीना हर पल को,
अस्तित्व हंसी से भर देना ।
तुम मुझको विस्मृत कर देना ।।

***

48 - अनगाये गीत मेरे...

अनगाये गीत मेरे, पीर के बसेरे ।
अनगढ़ से शब्द मेरे, भाव के चितेरे ।

झील के किनारे पर, चांद नाचता होगा ।
नील कमल में भंवरा, प्रीत बांचता होगा ।
मन उड़ते बादल में, चित्र सा उकेरे ।
अनसुलझे प्रश्न मेरे, रात के लुटेरे ।।

खिड़कियों के कमरे में, नीम झांक जाता है ।
अनबुझी प्रतीक्षा को, दीप मुंह चिढ़ाता है ।
मन सूनी चौखट पे, नैन क्यूं बिखेरे !
अनहद से अश्रु मेरे, मौन के मछेरे ।।

पदचिन्हों की मुर्दा लाश, उठ गई तो क्या ?
पेड़ थम गए तो क्या, छांव लुट गई तो क्या ?
मन चलती राहों की, एड़ियां निबेरे ।
अनथके कदम मेरे, मंजिलों के डेरे ।।

***

49 - क्या पाया ! मरुथल सा जीवन...

क्या पाया, मरुथल सा जीवन !
नागफणी से मीत ।
पथराई आंखों में डूबे,
कालजयी से गीत ।

कितना पानी बहा नदी में,
अब तक पड़ी, दरारें कितनी !
तट के सिर पर, लटक रही हैं,
लहरों की तलवारें कितनी !

क्या फांसा, नादान मछेरे !
इक हारी सी जीत ?

सूखे कई समंदर खारे,
टूटे कई अबोले मोती ।
कथरी की पैबंदी सांसें,
कब तक बूढ़ी आस पिरोती !

क्या चाहा, जो कभी किसी को
मिली नहीं, वो प्रीत ?

***

50 - याद आए बचपन के गांव रे...

धरती ने धारी चुनरिया जो धानी,
बरखा में बदरा से बरसा जो पानी,
बिरहा की मारी, ये यादों की राधा,
आई चली नंगे पांव रे ।
याद आए बचपन के गांव रे ।।

बौराई अमराई, गदराई अमिया,
कोयल की कूकें, चहकती चिरैया,
पागल पपीहे की प्यासी दो अंखियां,
पाए नहीं कोई ठांव रे ।
याद आए बचपन के गांव रे ।।

पनघट पे अल्हड़ सी कलियों का मेला,
मदमाते, मंडराते, भंवरों का रेला,
जाड़े की ठिठुरन में, दहकी अंगीठी,
गर्मी में पीपल की छांव रे ।
याद आए बचपन के गांव रे ।।

बरगद की दाढ़ी को छूकर लताएं,
कहती थी, दादाजी गोद में उठाएं,
बारिश में आंगन में छप छप नहाना,
तैराना कागज़ की नाव रे ।
याद आए बचपन के गांव रे ।।

***

51 - मौन की भाषा...

गीत जो लिक्खे, निरर्थक शब्द बनकर रह गए ।
भाव मन के, शब्द के पिंजरे में फंसकर रह गए ।

तोड़ने को बांध मन का, भाव लहरें हैं विकल ।
हो गई अवरुद्ध वाणी, नेत्र हो उट्ठे सजल ।

मौन की भाषा की कुछ शब्दों में अभिव्यक्ति कहां !
भावना को व्यक्त कर दे, शब्द में शक्ति कहां ?

कह दिया मैने बहुत कुछ, फिर भी कुछ न कह सका ।
मन में जो लावा था वो, पिघला मगर न बह सका ।

और हम इतने विवश थे, सिर्फ हंसकर रह गए ।
भाव मन के, शब्द के पिंजरे में फंसकर रह गए ।।

वक्त मिल जाए कभी तो, ख़ुद से ही तुम पूछना ।
कह सके औरों से क्या सचमुच हृदय की वेदना ?

चाह थी कहने की लेकिन, शब्द आड़े आ गए ।
तुम नहीं समझा सके, या लोग धोखा खा गए ।

शब्द और माध्यम ? असंभव ! शब्द क्या है, कौन है ?
भावना कहने को केवल एक भाषा "मौन" है ।

मौन की भाषा, जिसे सुनता हृदय, कहते नयन ।
कर रहे बेकार हम सब, व्यर्थ शब्दों का चयन ।

शब्दों के ये नाग तो, भावों को डंसकर रह गए ।
भाव मन के, शब्द के पिंजरे में फंसकर रह गए ।।

मौन भी भाषा ही है, पर किसको यह विश्वास है ?
सोचते होंगे सभी, यह व्यर्थ की बकवास है ।

तुम समझ न पाओगे, इस भावना की गुढ़ता ।
क्योंकि तुमने ओढ़ रक्खी, शब्दवादी मूढ़ता ।

ना समझ पाए, ना सुन पाए, इसी में राज़ है ।
भाव ख़ुद भाषा है, वे कब शब्द के मोहताज हैं ?

भावना जिनमें ढले, वे शब्द न चुन पाओगे ।
तुम कभी धरती गगन की बात न सुन पाओगे ।

मौन की भाषा में क्या कहता है चातक मेघ से ?
झूमते पेड़ों ने क्या बोला पवन के वेग से ?

पंछियों ने भोर की पहली किरण से क्या कहा ?
गुनगुनाते भ्रमर ने, खिलते सुमन से क्या कहा ?

प्यासे रेगिस्तान से क्या कह दिया है रेत ने ?
कृषक से क्या कह दिया है लहलहाते खेत ने ?

चांद ने कल रात अपनी चांदनी से क्या कहा ?
या पतंगे ने शमा की रौशनी से क्या कहा ?

झील क्या कहती है सकुचाए कमल के फूल से ?
क्या कहा बारिश की बूंदों ने, धरा की धूल से ?

भीगी भीगी ओस ने है पुष्प दल से क्या कहा ?
विरह में व्याकुल नदी ने, सिंधु जल से क्या कहा ?

अनगिनत सदियों से पर्वत नभ से क्या बतिया रहे ?
कौन सा महागीत ये निर्झर, निरंतर गा रहे ?

खेत भी, खलिहान भी, सागर भी, और पाषाण भी,
बस्तियों से कह रहे कुछ, खंडहर सुनसान भी ।

सारी सृष्टि कह रही, पर लग रहा, निस्तब्ध है ।
मौन की भाषा है ये, और भावना के शब्द हैं ।

भावना जिनमें ढले, वे शब्द ना चुन पाओगे ।
तुम कभी धरती गगन की बात न सुन पाओगे ।

और कभी सुन भी लिया, तो कह नहीं पाओगे तुम ।
शब्दों की बैसाखी होगी, फिर भी लंगड़ाओगे तुम ।

कहना तो चाहोगे सबसे, किंतु न कह पाओगे ।
शब्द पड़ जाएंगे छोटे, ढूंढते रह जाओगे ।

क्योंकि जो दिल न निकलें, शब्द वो निस्सार हैं ।
ये किसी वीणा के टूटे तार हैं, बेकार हैं ।

साज़ ना झंकृत हुआ, बस तार कसकर रह गए ।
भाव मन के शब्द के पिंजरे में फंसकर रह गए ।।

***

52 - आत्मशक्ति का खेल है सारा...

आत्मशक्ति का खेल है सारा ।

विजय उसे ही मिली यहां पर,
मन से कभी नहीं जो हारा ।

आत्मशक्ति का खेल है सारा ।
आत्मशक्ति का खेल है सारा ।

उम्र तो केवल इक संख्या है,
उम्र से कब कोई वृद्ध हुआ है ?
जिसका मन ऊर्जा से भरा हो,
वह बुज़ुर्ग भी, सदा युवा है ।
उसका जीवन नित्य नया है,
जिसने हर क्षण को है संवारा ।

आत्मशक्ति का खेल है सारा ।
आत्मशक्ति का खेल है सारा ।

रोग, शोक, दुख दर्द, निराशा,
सिर्फ मानसिक कमजोरी है ।
देख ध्यान से, चंचल मन की,
तेरे हाथ में ही डोरी है ।
सोच सकारात्मक रख प्यारे,
वही बनेगी तेरा सहारा ।

आत्मशक्ति का खेल है सारा ।
आत्मशक्ति का खेल है सारा ।

जिसे अंधेरा समझ रहा तू,
वह अभाव है मात्र किरन का ।
इक आशा का दीप जला लेे,
मिट जाएगा तम जीवन का ।
जिस उद्गम से तृष्णा जन्मी,
वहीं से निकलेगी जल धारा ।

आत्मशक्ति का खेल है सारा ।
आत्मशक्ति का खेल है सारा ।

***

53 - एक तरफ होना पड़ेगा...

सच्चे मन से विश्व का कल्याण यदि तुम चाहते हो,
तो ये निश्चित जान लो, अब एक तरफ होना पड़ेगा ।

आसुरी शक्ति यहां अब तामसिक धुन गा रही हैं ।
सिर से भावी पीढ़ियों के, छांव छीनी जा रही है ।
ढा रही ज़ुल्मो सितम चहुं ओर जयचंदों की टोली,
बाड़ खुद बेशर्म होकर खेत अपना खा रही है ।

अब अखंडित राष्ट्र का निर्माण, यदि तुम चाहते हो,
तो ये निश्चित जान लो अब एक तरफ होना पड़ेगा ।

कौन है, विपरीत धारा के यहां जो बह सकेगा ?
कौन है जो विश्व के कल्याण हित दुख सह सकेगा ?
कंठ में जब सत्य के स्वर को दबाया जा रहा हो ।
देख यह कोई भला निष्पक्ष कैसे रह सकेगा ?

हो न मानवता कभी निष्प्राण, यदि तुम चाहते हो,
तो ये निश्चित जान लो, अब एक तरफ होना पड़ेगा ।

कल समय पूछेगा सबसे, सत्य जब घायल पड़ा था,
कौन मजबूती से उसके पक्ष में डटकर खड़ा था ।
कौन छल बल या प्रलोभन से मिला शत्रु से जा कर,
कौन दुश्मन की तरफ से युद्ध में छुप कर लड़ा था ।

व्यर्थ वीरों का न हो बलिदान, यदि तुम चाहते हो,
तो ये निश्चित जान लो अब एक तरफ होना पड़ेगा ।

***

54 - मैं अच्छा इंसान नहीं हूं...

मैं अच्छा इंसान नहीं हूं, सच मानो ।

जितना प्यार मिला है जग से,
उतना जग को, दिया नहीं है ।
इस दुनिया की खातिर मैंने,
सच में कुछ भी किया नहीं है ।

जितने ज्यादा पाप किए हैं,
उतना पुण्य कमा ना पाया ।
जितने कागज़ लिख लिख फाड़े,
उतने पेड़ लगा ना पाया ।
शिक्षा हूं बस, ज्ञान नहीं हूं, सच मानो ।

था परमार्थ दिखावा केवल,
भीतर, स्वार्थ अगाध छुपा था ।
पंछी को जब चुग्गा डाला,
तब अंतस में व्याध छुपा था ।

होगी कोई चाह अधूरी,
जिसने फिर जन्माया मुझको ।
होगा कोई कर्ज़ बकाया,
जो दुनिया में लाया मुझको ।
शाप हूं मैं, वरदान नहीं हूं, सच मानो ।

मैं अच्छा इंसान नहीं हूं, सच मानो ।

***

- शेखर "अस्तित्व"